प्रेस संस्कृति एवं राष्ट्रवाद
अतिलघु उत्तरीय प्रश्न
1. जापानी उकियो चित्रकला शैली की विषय वस्तु क्या थी?
उत्तर:-
जापानी उकियो चित्रकला शैली की विषय वस्तु शहरी लोगों के जीवन पर आधारित थी|
2. इटली में वुड ब्लॉक छपाई की तकनीक कहाँ से और किसके द्वारा लाई गई?
उत्तर:-
इटली में वुड ब्लॉक छपाई की तकनीक चीन से मार्कोपोलो द्वारा लाई गई|
3. किसने कहा था किताबें भिनमिनाती मक्खियों की तरह है|
उत्तर:-
कैथोलिक धर्म सुधारक इरैस्मस ने
4. रोमन चर्च ने प्रकाशकों और पुस्तक विक्रेताओं पर प्रतिबंध क्यों लगाया?
उत्तर:-
नये धार्मिक विचारों के प्रचार को रोकने के लिए रोमन चर्च ने प्रकाशकों और पुस्तक विक्रेताओं पर प्रतिबंध लगाया|
5. मुद्रण संस्कृति ने फ्रांसीसी के लिए किस प्रकार अनुकूल परिस्थितियों बनाई? किसी एक का उल्लेख करें?
उत्तर:-
वाद विवाद की संस्कृति——
पुस्तकों और लेखों में वाद विवाद की संस्कृति को जन्म दिया| नये विचारों के प्रसार के साथ ही तर्क की भावना का विकास हुआ| अब लोग पुरानी मान्यताओं की समीक्षा कर उनपर अपने विचार प्रकट करने लगे| इससे नयी सोच उभरी| राजशाही चर्च और सामाजिक व्यवस्था में बदलाव की आवश्यकता महसूस की जाने लगी| फलतः क्रांतिकारी विचारधारा का उदय हुआ| इस तरह मुद्रण संस्कृति ने संस्कृति ने फ्रांसीसी क्रांति के लिए अनुकूल परिस्थितियों बनाई|
6. वर्नाक्यूलर प्रेस एक्ट पारित करने का उद्देश्य क्या था?
उत्तर:-
सरकार वैसी कोई भी पत्र पत्रिका अथवा समाचार पत्र को मुक्त रुप से प्रकाशित नहीं होने देना चाहती थी जिससे सरकारी व्यवस्था और नीतियों की आलोचना हो तथा भारत उभरते हुए राष्ट्रवाद के प्रसार को रोकना|
7. छपाई का आरंभ किस देश में हुआ?
उत्तर:-
चीन
8. छापाखाना का आविष्कार किस देश में हुआ?
उत्तर:-
जर्मनी
9. इटली में वुडलाक छपाई की तकनीक कौन लाया?
उत्तर:-
मार्कोपोलो
10. मार्टिन लूथन ने अएनी पिच्चानवे ं स्थापनाएँ किस चर्च के दरवाजे पर टांग दी?
उत्तर:-
गुटेनबर्ग चर्च
11. तिलक ने किस भाषा में मराठा का प्रकाशन किया?
उत्तर:-
अंग्रेजी भाषा में
12. किसने कहा था मुद्रण ईश्वर की दी हुई महानतम देन है, सबसे बड़ा तोहफा?
उत्तर:-
मार्टिन लूथर मुद्रण के पक्ष में था और उसने इसकी खुलेआम प्रशंसा की| मार्टिन लूथर मुद्रण की प्रशंसा करते हुए कहा कि मुद्रण ईश्वर की महानतम देन हैं और यह सबसे बड़ा तोहफा है| छपाई ने नया बौद्धिक माहौल बनाया और इससे धर्मसुधार आंदोलन के नये विचारों के प्रसार में मदद मिली|
13. धारावाहिक उपन्यास रोचक क्यों लगते थे?
उत्तर:-
जब से धारावाहिक उपन्यास प्रकाशित होने लगे इसके प्रति लोगों की अभिरुचि बढ़ने लगी| लोग उपन्यास का एक अंश पढ़कर अगले अंक के प्रकाशन की प्रतीक्षा करते थे| इससे उपन्यास की माँग और बिक्री में वृद्धि होने लगी|
14. औपनिवेशिक प्रसार को दिखाने वाली किन्हीं दो अंग्रेजी उपन्यासों और उनके लेखकों के नाम लिखें|
उत्तर:-
औपनिवेशिक प्रसार के अच्छे पहलुओं को दिखाने के लिए डैनियल डेफो ने राबिंसन क्रूसो नामक एक उपन्यास लिखा| इसी तरह औपनिवेशिक प्रकृति को दिखलाते हुए आर ०एल० स्टीवेन्सन ने ट्रेजर आइलैंड नामक उपन्यास लिखा|
15. हिंदी भाषा और देवनागरी लिपि को व्यापक बनाने में किस उपन्यास और उपन्यासकार की महत्वपूर्ण भूमिका थी?
उत्तर:-
हिंदी भाषा और देवनागरी लिपि को व्यापक बनाने का श्रय देवकिनदंन खत्री को जाता है| इनका उपन्यास चंद्रकांता संतति अनेक खंडों में प्रकाशित हुआ| इस उपन्यास को पढ़ने के लिए पाठकों ने हिंदी भाषा और देवनागरी लिपि का ज्ञान प्राप्त किया|
16. मुसलमानों की रोजाना जिंदगी का उल्लेख किस मलयालम लेखक ने किया है?
उत्तर:-
वैकोम मुहम्मद बशीर ने मलयालम भाषा में उपन्यास लिखे| उनके उपन्यासों में मुस्लिम परिवारों की रोजाना जिंदगी, गरीबी, पागलपन और बंदी जीवन की झलक मिलती है| इन मुद्दों पर मलयालम भाषा में मुहम्मद बशीर से पहले किसी ने नहीं लिखा|
लघु उत्तरीय प्रश्न
1. गुटेनबर्ग के विषय में आप क्या समझते हैं?
उत्तर:-
जर्मनी का गुटेनबर्ग ने 1450 ई० में छापाखाना का अधिकार किया| वह बहुत ही जिज्ञासु प्रवृत्ति का था| जैतून पैरने की मशीन को आधार बनाकर उसने प्रिटिंग प्रेस (हैंड प्रेस) का विकास किया| गुटेनबर्ग ने मुद्रण स्याही का भी इजाद किया| गुटेनबर्ग ने जो छपाई मशीन विकसित की उसे मूवेबल टाइप प्रिंटिंग मशीन कहा गया| क्योंकि रोमन वर्णमाला के सभी 26 अक्षरों के लिए टाइप बनाए गए तथा इन्हें घुमाने या मूव करने की व्यवस्था की गई| इस प्रक्रिया के द्वारा पुस्तकें तेजी से छापी जाने लगी| इसका अनुमान इस बात से लगाया जा सकता है कि इस मिशन में प्रति घंटे अढ़ाई और पन्नों के एक ओर छपाई की जा सकती थी| गुटेनबर्ग प्रेस में जो पहली पुस्तक छपी वह ईसाई धर्मग्रंथ बाइबिल थी|
2. रोमन कैथोलिक चर्च ने 16 वीं सदी के मध्य से प्रतिबंधित पुस्तकों की सूची रखनी क्यों आरंभ की?
उत्तर:-
मार्टिन लूथर के पिच्चानवें स्थापनाएँ (1517) ने रोमन कैथोलिक चर्च में प्रचलित अनेक परंपराओं एवं धार्मिक विधियों पर प्रहार किया| लूथर के इस लेख का व्यापक प्रचार हुआ जिसके कारण रोमन कैथोलिक चर्च में विभाजन हो गया| लूथर ने ईसाई धर्म की नयी व्याख्या प्रस्तुत की| उसके समर्थक प्रोटेस्टैंट कहलाए| दूसरी ओर रोमन कैथोलिक चर्च धर्म विरोधी भावना को दबाने के लिए प्रयासरत थी क्योंकि पुस्तकें धार्मिक मान्यताओं एवं चर्च की सत्ता को चुनौती दे रही थी| नये धार्मिक विचारों के प्रसार को रोकने के लिए चर्च ने प्रकाशकों और पुस्तक विक्रेताओं पर अनेक प्रतिबंध लगा दिए जिससे वे धार्मिक स्वरूप को चुनौती देने वाली सामग्री का प्रकाशन नहीं कर सकें| चर्च ने अनेक पुस्तकों को प्रतिबंधित भी कर दिया| 1558 से चर्च प्रतिबंधित पुस्तकों की सूची रखने लगा जिससे उनका पुनर्मुद्रण और वितरण नहीं हो सके|
3. तकनीकी विकास का मुद्रण पर क्या प्रभाव पड़ा?
उत्तर:-
तकनीकी विकास का मुद्रण पर काफी प्रतिकूल प्रभाव पड़ा| अब कम समय, कम श्रम तथा कम लागत में ज्यादा छपाई होने लगी| 18 वीं सदी के अंतिम चरण तक धातु के बने छापाखाने काम करने लगे| 19 वीं 20 वीं सदी में छापाखानों में और अधिक तकनीकी सुधार किए गए| 19 वीं शताब्दी में न्यूयॉर्क निवासी एम० ए० हो ने शक्ति चालित बेलनाकार प्रेस का निर्माण किया| इसके द्वारा प्रतिघंटा आठ हजार ताव छापे जाने लगे| इससे मुद्रण में तेजी आई| इसी सदी के अंत तक आफसेट प्रेस भी व्यवहार में आया| इस छापाखाना द्वारा एक ही साथ छह रंगों में छपाई की जा सकती थी| 20 वीं सदी के आरंभ से बिजली संचालित प्रेस व्यवहार में आया| इसने छपाई को और गति प्रदान की| प्रेस में अन्य तकनीकी बदलाव भी लाए गए, जैसे कागज लगाने की विधि में सुधार किया गया तथा प्लेट की गुणवत्ता बढ़ाई गई| साथ ही स्वचालित पेपर शील एवं रंगों के लिए फोटो विद्युतीय नियंत्रण का व्यवहार किया जाने लगा|
4. भारत में मुद्रण के आरंभिक इतिहास पर एक टिप्पणी लिखें|
उत्तर:-
भारत में यूरोप की तुलना में पुस्तकों की छपाई देर से आरम्भ हुई जबकि प्राचीन काल से ही लोग लिपि और लेखन कला से परिचित थे| उस समय धातु पत्थर पर अभिलेख उत्कीर्ण करवाने के अतिरिक्त भोजपत्र एवं ताड़ के पत्तों तथा बाद में हाथ से बने कागज का व्यवहार भी लेखन सामग्री के रूप में किया गया| भारत में छपाई का इतिहास पुर्तगालियों के आगमन के साथ आरंभ होता है| 16 वीं सदी के मध्य में गोवा में पुर्तगाली धर्मप्रचारकों, जेसुइटों ने पहली बार छापाखाना लगाया| उन लोगों ने स्थानीय लोगों से कोंकणी भाषा सीखकर उसमें अनेक पुस्तकें छापी| 16 वीं शताब्दी से ही कैथोलिक पादरियों ने तमिल भाषा में पहली पुस्तक कोचीन में प्रकाशित की| इसी समय से भारत में पुस्तकों की छपाई ने गति पकड़ी| 1674 तक कोंकणी और कन्नड़ में लगभग पचास पुस्तकों का प्रकाशन हो चुका था| डच धर्म प्रचारक भी पुस्तकों की छपाई में पीछे नहीं रहे| उनलोगों ने पुरानी पुस्तकों के अनुवाद सहित बत्तीस तमिल भाषा की किताबें छापी| इस प्रकार भारत में पुस्तकों का प्रकाशन यूरोपीय धर्म प्रचारकों द्वारा आरंभ किया गया| पुस्तकों के साथ ही 18 वीं शताब्दी से पत्र पत्रिकाओं का प्रकाशन भी आरंभ हुआ|
5. भारत में पांडुलिपियाँ कैसे बनाई जाती थी?
उत्तर:-
प्राचीन काल में भारत में धातु पत्थर पर अभिलेख उत्कीर्ण करवाने के अतिरिक्त भोजपत्र एवं ताड़ के पत्रों तथा बाद में हाथ से बने कागज का व्यवहार भी लेखन सामग्री के रूप में किया गया| इनसे हस्तलिखित पांडुलिपियाँ तैयार की गई| संस्कृत पाली प्राकृत क्षेत्रीय भाषाओं, अरबी तथा फारसी में ऐसी असंख्य पांडुलिपियाँ तैयार की गई| इनके किनारों को सुंदर, रंगीन चित्रों से सुसज्जित किया जाता था| इनके पन्नों को सिलकर उनपर जिल्द चढ़ा दी जाती थी जिससे वे सुरक्षित रह सके| सल्तनत और मुगलकाल में भी बड़ी संख्या में अरबी फारसी में पांडुलिपियाँ तैयार की गई| मुगल सम्राट अकबर ने तो एक किताब खाना ही खोल रखा था जहाँ पांडुलिपियाँ बनाई जाती थी| पांडुलिपि बनाने की विधि उनका व्यवहार कठिन था| वे महंगी और नाजुक होती थी| सबके लिए उन्हें पढ़ना नहीं था| इसिलिए वे सर्वसाधारण की पहुँच से बाहर थी|
6. मार्टिन लूथर के विषय में आप क्या जानते हैं?
उत्तर:-
मार्टिन लूथर (जर्मनी) एक महान धर्म सुधारक था| वह चर्च में व्याप्त बुराइयों का विरोधी था और इसमें सुधार लाना चाहता था| उसे धर्म सुधार आंदोलन का अग्रदूत कहा जाता है| 1517 में लूथर ने पंचानवें स्थापनाएँ लिखीं जिसमें उसने रोमन कैथोलिक चर्च में प्रचलित अनेक परंपराओं एवं धार्मिक विधियों पर प्रहार किया| लूथर के लेखक के व्यापक प्रभाव से रोमन कैथोलिक चर्च में विभाजन हो गया| लूथर ने ईसाई धर्म की नयी व्याख्या प्रस्तुत की| उसके समर्थक प्रोटेस्टैंक कहलाए| धीरे धीरे प्रोटेस्टेंट संप्रदाय ईसाई धर्म का प्रमुख संप्रदाय बन गया|
7. इन्क्वीजीवशन से आप क्या समझते हैं? इसकी जरुरत क्यों पड़ी?
उत्तर:-
रोमन चर्च धर्म विरोधी भावना को दबाने के लिए प्रयासरत थी क्योंकि पुस्तकें धार्मिक मान्यताओं एवं चर्च की सत्ता को चुनौती दे रही थी| पुस्तकें पढ़कर सामान्य जनता और बुद्धिजीवी ने इसाई धर्म और बाइबिल में दिए गए उपदेशों पर नये ढंग से चिंतन मनन आरंभ कर दिया| धर्म विरोधी विचारों के प्रसार को रोकने के लिए रोमन चर्च ने इन्क्वीजीवशन नामक संस्था का गठन किया| यह एक प्रकार का धार्मिक न्यायालय था| इसका काम धर्म विरोधियों की पहचान कर उन्हें दंडित करना था| इन्क्वीजीवशन की जरूरत इसिलिए पड़ी कि नये धार्मिक विचारों के प्रसार को रोकने के लिए चर्च ने प्रकाशकों और पुस्तक विशेषताओं पर अनेक प्रतिबंध लगा दिए जिससे वे धार्मिक स्वरूप को चुनौती देने वाली सामग्री का प्रकाशन नहीं कर सकें| 1558 से चर्च प्रतिबंधित पुस्तकों की सूची रखने लगा जिससे उसका पुनर्मुद्रण और वितरण नहीं हो सके|
8. यूरोप में युवा वर्ग के लिए किस प्रकार के उपन्यास लिखे गए?
उत्तर:-
युवाओं के लिए लिखे गए उपन्यासों का उद्देश्य उनमें साहस की भावना जगाना था जबकि किशोरियों के लिए रोमांस से भरपूर कहानियाँ और स्वतंत्र विचार वाले पुरुष के रूप में प्रदर्शित किया गया| ऐसे उपन्यासों के कथानकों का स्थल यूरोप से दूर दराज के इलाकों में होता था| 18 वीं तथा 19 वीं शताब्दियों में पश्चिमी दुनिया में उपनिवेशों की स्थापना करने वालों की पर्याप्त सामाजिक प्रतिष्ठा थी| साहसिक कारनामों और उपनिवेशों की स्थापना से संबद्ध अनेक रोचक उपन्यास प्रकाशित किए गए| इनमें प्रमुख है डैनियल डेफो का राबिंसन क्रूसो तथा गुलिवर्स ट्रेवल्स, आर०एल० स्टीवेन्सन का ट्रेजर आइलैंड और रूडबार्ड किपलिंग का जंगल बुक जो साहसिक कारनामों से भरपूर है| जी ०ए० हेटी का अंडर ड्रेर्क्स फ्लैंग में अंग्रेजी वीरता और इसाई धर्म का गुणगान किया गया है|
9. 19 वीं सदी के ब्रिटेन में आए उन सामाजिक बदलावों का उल्लेख करें जिनका चित्रण चार्ल्स डिकेंस और थामस हार्डी ने अपने उपन्यासों में किया है|
उत्तर:-
चार्ल्स डिकेंस अंग्रेजी साहित्य तथा उपन्यास के महान लेखक माने जाते हैं| हार्ड टाइम्स और ओलिवर टिवस्ट उनके महान उपन्यास थे| ओलिवर टिवस्ट में बेसहारा और अनाथ बच्चों के जीवन में उतार चढ़ाव की कहानी है| हार्ड टाइम्स में उन्होंने को कटाउन अर्थात धुएँ का शहर नामक काल्पनिक औद्योगिक नगर के विनाशकारी प्रभाव का वर्णन किया है| इसमें कारखानेदारों की अधिक मुनाफा कमाने एवं श्रमिकों का मार्मिक चित्रण है| थामस हार्डी ने अपने उपन्यासों में ग्रामीण समुदायों, उनकी खुशियों तथा उनके गमों के साथ जुड़ने का भाव पैदा किया है| उनके कुछ महत्वपूर्ण उपन्यास फार फ्राम दी मड्डिंग काउंड, टैस इत्यादि है|
10. औपनिवेशिक भारत के दो उपन्यासों का उल्लेख करें, जिनमें राष्ट्रवाद को दिखाया गया है|
उत्तर:-
औपनिवेशिक भारत में उपन्यासकारों ने ऐसे उपन्यासों को लिखा जो राष्ट्रीय वीरता, साहसिक घटनाओं तथा त्याग की भावना से भरपूर थे| 1857 में भूदेव मुखोपाध्याय ने अंगुरिया विनिमाय नामक पहला ऐतिहासिक उपन्यास लिखा| इस उपन्यास में मराठा छत्रपति शिवाजी और मुगल सम्राट औरंगजेब के बीच संघर्ष को दिखाया गया है| बंकिमचन्द्र चट्टोपाध्याय के उपन्यास आनंदमठ में मुसलमानों से लड़ कर हिंदू साम्राज्य स्थापित करने वाला हिंदू सैन्य संगठन की कहानी दी गई है| इस उपन्यास और इसके गीत वंदे मातरम का गहरा असर स्वतंत्रता सेनानियों और क्रांतिकारियों पर पड़ा| राष्ट्रवाद की भावना जागृत करने में गुरुवर रवीन्द्रनाथ टैगोर का उपन्यास घरे बायरे का भी महत्वपूर्ण योगदान है|
11. परीक्षा गुरु उपन्यास में मध्यम वर्ग को किस रूप में प्रस्तुत किया गया है?
उत्तर:-
दिल्ली के निवासी श्रीनिवास दास ने 1882 में परीक्षा गुरु नामक उपन्यास लिखा| यह उपन्यास नवोदित मध्यम वर्ग के अंतरद्वंद्व और मानसिकता का रोचक चित्रण प्रस्तुत करता है| मध्यम वर्ग की मूलभूत समस्या यह थी कि वे कैसे आधुनिकीकरण का अनुकरण करते हुए अपनी मूल सांस्कृतिक पहचान बनाए रखे| उनके लिए आधुनिकीकरण आकर्षक के साथ साथ भयानक था| श्रीनिवास दास ने परीक्षा गुरु उपन्यास में स्पष्ट रूप से लिखा है कि—– उपन्यास हर विवेकवान इंसान से यह उम्मीद करता है कि वह समाज चतुर और व्यावहारिक बने, पर साथ ही अपनी संस्कृति और परंपरा में जमे रहकर आदर और गरिमा का जीवन जिए| परीक्षा गुरु एक उपदेशात्मक उपन्यास था|
12. इरैस्मस का छपी किताबों पर क्या विचार था?
उत्तर:-
इरैस्मस हालैंड के राटरडम नामक शहर का रहने वाला था| वह चर्च की त्रुटियों को दूर करना चाहता था| परन्तु वह किसी के विरोध के पक्ष में नहीं था| उसने अपनी पुस्तकों में तत्कालीन ईसाई धर्म के दोषों को बड़े सुंदर ढंग से वर्णन किया है| उसकी पुस्तक प्रेज आफ फाली में पादरियों के दोषमय जीवन की हंसी उड़ाते हुए कहा गया है इरैस्मस के मजाकों ने पोप की मान मर्यादा को लूथर के क्रोध से भी कहीं अधिक हानि पहुंचाया| छपी किताबों को लेकर इरैस्मस के विचार इस प्रकार है—- उन्होंने 1508 में कहा, किताबें भिनभिनाती मक्खियों की तरह है दुनिया का कौन सा कोना है, जहाँ ये नहीं पहुंच जाती ं? हो सकता है कि जहाँ तहाँ एकाध जानने लायक चीजें भी बताएं, लेकिन इनका ज्यादा हिस्सा तो विद्वता के लिए हानिकारक ही है| बेकार ढेर है, क्योंकि अच्छी चीजों को अति भी हानिकारक ही है, इनसे बचना चाहिए………( मुद्रक ) दुनिया को सिर्फ तुच्छ (जैसे कि मेरी लिखी, चीजों से ही नहीं पाट रहे, बल्कि बकवास, बेवकूफ, सनसनीखेज, धर्मविरोधी, अज्ञानी और षड्यंत्रकारी किताबें छापते है, और उनकी तादाद ऐसी है कि मूल्यवान साहित्य का मूल्य ही नहीं रह जाता|
13. ब्रिटेन में आए सामाजिक बदलावों से महिला पाठकों की संख्या में कैसे वृद्धि हुई?
उत्तर:-
उपन्यास महिला पाठकों में बहुत लोकप्रिय था| 18 वीं शताब्दी में महिलाओं को लिखने पढ़ने के अवसर उपलब्ध हुए| उपन्यासों में महिला पात्रों की जिंदगी तथा उनकी समस्याओं का चित्रण किया गया| महिलाओं के लिए लिखे गए उपन्यासों में अनेक घरेलू जीवन को आधार बनाया गया| इनके द्वारा वे अपनी भावनाओं को प्रकट करने एवं अपने अधिकारों की वकालत करने में सक्षम हुई| जैसे जैसे महिला पाठकों की गिनती बढ़ती गई वैसे वैसे उपन्यासकारों का ध्यान भी उनकी ओर आकर्षित होने लगा| यूरोप और भारत में पारिवारिक जीवन, जिसमें महिलाओं की महत्वपूर्ण भूमिका रहती है, उपन्यास का एक महत्वपूर्ण विषय बन गया| पुरूषों की अपेक्षा महिलाओं को घर में काफी समय मिल जाता है, जब वे अकेले बैठकर उपन्यास का लुत्फ़ उठा सकती थी| अनेक उपन्यास महिलाओं के लिए महिला उपन्यासकारों ने लिखी| इनमें जेन आस्टिन के प्राइड एवं प्रेज्युडिम तथा शारलाट ब्राण्ड का जेन आयर विख्यात है|
14. भारत में पांडुलिपियाँ कैसे बनाई जाती थी?
उत्तर:-
भारत में पुस्तकों की छपाई का आरंभ देर से हुआ, यद्यपि प्राचीन काल से ही लोग लिपि और लेखन कला जानते थे| धातु पत्थर पर अभिलेख लिखने के अलावा भोजपत्र तथा ताड़ के पत्तों पर भी लिखाई की जाती थी| बाद में हाथ से बने कागज पर भी पांडुलिपियाँ तैयार की जानें लगीं| पांडुलिपियों की पुरानी एवं समृद्ध परंपरा से यहाँ संस्कृत, अरबी एवं फारसी साहित्य को अनेकानेक तस्वीर युक्त सुलेखन कला से परिपूर्ण साहित्यों की रचनाएँ होती थी| इनके किनारों को सुंदर एवं रंगीन चित्रों से सुसज्जित किया जाता था| इन्हें मजबूती प्रदान करने के लिए इनके पन्नों को सिल कर उन पर जिल्द चढ़ा दी जाती थी| एक पांडुलिपि की नकल कर उसकी अनेक प्रतियाँ बनाई जाती थी| पांडुलिपियों की नकल करना कठिन कार्य था| इसे विद्वान लोग परिश्रमपूर्वक करते थे| उदाहरणस्वरूप बिहार के विख्यात अंतराष्ट्रीय नालंदा विश्वविद्यालय में बौद्ध भिक्षुक पांडुलिपियों की नकल का काम करते थे| मुगल सम्राट अकरबर ने एक किताब खाना खोल रखा था| जहाँ पांडुलिपियाँ बनाई जाती थी और महत्वपूर्ण ग्रंथों के अनुवाद किए जाते थे| पांडुलिपियाँ महंगी और नाजुक होती थी| सबके लिए उन्हें पढ़ना आसान नहीं था| इसिलिए ये सर्व धरण की पहुँचे से बाहर थीं| 17 वीं—18 वीं शताब्दी तक बहुत कम लोग पढ़े लिखे होते थे|परंपरागत पाठशालाओं और गुरूकुलों में मौखिक शिक्षा दी जाती थी|
दीर्घ उत्तरीय प्रश्न
1. फ्रांसीसी क्रांति की पृष्ठभूमि तैयार करने में मुद्रण की भूमिका की विवेचना करें|
उत्तर:-
फ्रांस की क्रांति में बौद्धिक कारणों का भी काफी महत्वपूर्ण योगदान था| फ्रांस के लेखकों और दार्शनिक ने अपने लेखों और पुस्तकों द्वारा लोगों में नयी चेतना जगाकर क्रांति की पृष्ठभूमि तैयार कर दी| मुद्रण ने निम्नलिखित प्रकारों से फ्रांसीसी क्रांति की पृष्ठभूमि तैयार करने में अपनी भूमिका निभाई——–
ज्ञानोदय के दार्शनिकों के विचारों का प्रसार—
पुस्तकों और लेखों ने ज्ञानोदय के चिंतकों के विचारों का प्रचार प्रसार किया जिन्हें पढ़कर लोगों में नयी चेतना जगी| फ्रांसीसी दार्शनिकों में रुढ़िगत सामाजिक, धार्मिक और राजनीतिक व्यवस्था की कटु आलोचना की| इन लोगों ने इस बात पर बल दिया कि अंधविश्वास और निरंकुशवाद के स्थान पर तर्क और विवेक पर आधृत व्यवस्था की स्थापना हो| चर्च और राज्य की निरंकुश सत्ता पर प्रहार किया गया| वाल्टेयर और रूसो ऐसे महान दार्शनिक थे जिनके लेखन का जनमानस पर गहरा प्रभाव पड़ा|
वाद विवाद की संस्कृति——-
पुस्तकों और लेखों ने वाद विवाद की संस्कृति को जन्म दिया| अब लोग पुरानी माध्यम की समीक्षा कर उनपर अपने विचार प्रकट करने लगे| इससे नयी सोच उभरी| राजशाही, चर्च और सामाजिक व्यवस्था में बदलाव की आवश्यकता महसूस की जाने लगी| फलतः क्रांतिकारी विचारधारा का उदय हुआ|
राजशाही के विरुद्ध असंतोष——–
1789 की क्रांति के पूर्व फ्रांस में बड़ी संख्या में ऐसा साहित्य प्रकाशिक हो चुका था जिसमें तानाशाही राज व्यवस्था और इसके नैतिक पतन की कटु आलोचना की गई थी| निरंकुशवाद और राजदरबार के नैतिक पतन का चित्रण भी इस साहित्य में किया गया| साथ ही सामाजिक व्यवस्था पर भी क्षोभ प्रकट किया गया| अनेक व्यंग्यात्मक चित्रों द्वारा यह दिखाया गया कि किस प्रकार आम जनता का जीवन कष्टों और अभावों से ग्रस्त था जबकि राजा और उसके दरबारी विलासिता में लीन है| इससे जनता में राजतंत्र के विरुद्ध असंतोष बढ़ गया| इस प्रकार फ्रांसीसी क्रांति की पृष्ठभूमि को तैयार करने में मुद्रण सामग्री की भूमिका काफी महत्वपूर्ण रही जिससे प्रभावित होकर जनता क्रांति के लिए तत्पर हो गयी|
2. भारत में धार्मिक सामाजिक सुधारों को पुस्तकों एवं पत्रिकाओं ने किस प्रकार बढ़ावा दिया?
उत्तर:-
18 वीं, 19 वीं शताब्दी में प्रेस ज्वलंत राजनीतिक, सामाजिक एवं धार्मिक प्रश्नों को उठानेवाला एक सशक्त माध्यम बन गया| 19 वीं सदी में बंगाल में भारतीय पुनर्जागरण हुआ| इससे सामाजिक धार्मिक सुधार आंदोलन का मार्ग प्रशस्त हुआ| परंपरावादी और नयी विचारधारा रखनेवालों ने अपने अपने विचारों का प्रचार करने के लिए पुस्तकों और पत्र पत्रिकाओं का सहारा लिया| राजा राममोहन राय ने अपने विचारों को प्रचारित करने के लिए बंगाल भाषा में संवाद कौमुदी नामक पत्रिका का प्रकाशन 1821 में किया| उनके विचारों का खंडन करने के लिए रुढ़िवादियों ने समाचार चंद्रिका नामक पत्रिका प्रकाशित की| राममोहन राय ने 1822 में फारसी भाषा में मिरातुल अखबार तथा अंग्रेजी में ब्रासृनिकल मैंगनीज भी प्रकाशित किया| उनके ये अखबार सामाजिक धार्मिक सुधार आंदोलन के प्रभावशाली अस्त्र बन गए| 1822 में ही बंबई से गुजराती दैनिक समाचार पत्र का प्रकाशन आरंभ हुई| द्वारकानाथ टैगोर, प्रसन्न कुमार टैगोर तथा राममोहन राय के प्रयासों से 1830 में बंगदत्त की स्थापना हुई| 1831 में जामे जमशेद, 1851 में रास्ते गोफ्तार तथा अखबारे सौदागर प्रकाशित किया गया| ईस्ट इंडिया कंपनी के अधिकारी भारतीय सामाचार पत्रों द्वारा सामाजिक, धार्मिक और राजनीतिक चेतना के विकास को शंका की दृष्टि से देखते थे| इसलिए 19 वीं शताब्दी में भारतीय प्रेस पर प्रतिबंध लगाने का प्रयास किया गया| भारतीय सामाचार पत्रों ने सामाजिक धार्मिक समस्याओं से जुड़े ज्वलंत प्रश्नों को उठाया| सामाचार पत्रों ने न्यायिक निर्णयों में किए गए पक्षपातों, धार्मिक मामले में सरकारी हस्तक्षेप और औपनिवेशिक प्रजातीय विभेद की नीति की आलोचना कर राष्ट्रीय चेतना जगाने का प्रयास किया|
3. बदलते परिपेक्ष्य में भारतीय प्रेस की विशेषताओं पर प्रकाश डालें|
उत्तर:-
19 वीं शताब्दी से भारत में समाचार पत्रों के प्रकाशन में तेजी आयी परंतु अबतक इसका प्रकाशन और वितरण सीमित स्तर पर होता रहा| इसका एक कारण यह था कि सामान्य जनता एवं समृद्ध कुलीन और सामंत वर्ग राजनीति में रुचि नहीं लेता था| इसी वर्ग के पास प्रेस चलाने के लिए धन और समय था परंतु यह वर्ग इस ओर उदासीन था| प्रेस चलाना घाटा का व्यवसाय माना जाता था| सरकार भी समाचार को कोई विशेष महत्व नहीं देती थी क्योंकि जनमत को प्रभावित करने में समाचार पत्रों की भूमिका नगण्य थी| इसके बावजूद भारतीय समाचार पत्र ने सामाजिक धार्मिक समस्याओं से जुड़े ज्वलंत प्रश्नों को उठाया| सामाचार पत्रों ने न्यायिक निर्णयों में किए गए पक्षपातों, धार्मिक मामलों में सरकारी हस्तक्षेप और औपनिवेशिक प्रजातीय विभेद की नीति की आलोचना कर राष्ट्रीय चेतना जगाने का प्रयास किया| यद्यपि 1857 के विद्रोह के बाद भारतीय सामाचार पत्रों की संख्या में वृद्धि हुई परंतु ये प्रजातीय आधार पर दो वर्गों ऐंग्लो इंडियन और भारतीय प्रेस में विभक्त हो गई| ऐंग्लो इंडियन प्रेस ने सरकार समर्थन रुख अपनाया| इसे सरकारी समर्थन और संरक्षण प्राप्त था| ऐंग्लो इंडियन प्रेस को अनेक विशेषाधिकार प्राप्त थे| यह अंग्रेजों के फूट डालो और शासन करो की नीति को बढ़ावा देता था तथा सांप्रदायिक एकता को बढ़ावा देनेवाले प्रयासों का विरोध करता था| इसका एकमात्र उद्देश्य ब्रिटिश राज के प्रति वफादारी की भावना का विकास करना था| इस समय अंग्रेजी भाषा और अंग्रेजों द्वारा संपादित समाचार पत्रों में प्रमुख था टाइम्स आफ इंडिया, स्टेट्स मैन, इंगलिश मैन, मद्रास मेल, फ्रेंड आफ इंडिया, पायनियर, सिविल एंड मिलिट्री गजट इत्यादि| इनमें इंगलिश मैन सबसे अधिक रुढ़िवादी और प्रतिक्रिया वादी समाचार पत्र था| पायनि पर सरकार का समर्थक और भारतीय का आलोचक था| ऐंग्लो इंडियन समाचार पत्रों के विपरीत अंग्रेजी और देशी भाषाओं में प्रकाशित समाचार पत्रों में अंग्रेजी सरकारी नीतियों की आलोचना की गई| भारतीय दृष्टिकोण को ज्वलंत प्रश्नों को रखा गया तथा भारतीयों में राष्ट्रीयता एवं एकता की भावना जागृत करने का प्रयास किया गया| ऐसे समाचार पत्रों में प्रमुख थे हिन्दू पैट्रियट, अमृत बाजार पत्रिका इत्यादि| अनेक प्रबुद्ध भारतीयों ने 19 वीं, 20 वीं शताब्दियों में भारतीय प्रेस को अपने लेखों द्वारा प्रभावशाली एवं शक्ति शाली बनाया|
4. औपनिवेशिक सरकार ने भारतीय प्रेस को प्रतिबंधित करने के लिए क्या किया?
उत्तर:-
औपनिवेशिक काल में प्रकाशन के विकास के साथ साथ इसे नियंत्रित करने का भी प्रयास किया गया| ऐसा करने के पीछे दो कारण थे—- पहला, सरकार वैसी कोई पत्र पत्रिका अथवा सामाचार पत्र मुक्त रुप से प्रकाशित नहीं होने देना चाहती थी जिससे सरकारी व्यवस्था और नीतियों की आलोचना हो| तथा दूसरा, जब अंग्रेजी राज की स्थापना हुई उसी समय से भारतीय राष्ट्रवाद का विकास भी रोने लगा| राष्ट्रवादी संदेश के प्रसार को रोकने के लिए प्रकाशन पर नियंत्रण लगाना सरकार के लिए आवश्यक था| अत: समय समय पर सरकार विरोधी प्रकाशनों पर नियंत्रण लगाने का प्रयास किया गया| स्वतंत्रता प्राप्ति के बाद भी सुरक्षात्मक और राजनीतिक कारणों से प्रेस पर नियंत्रण लगाने के प्रयास किए गए| 1857 के विद्रोह के परिणामस्वरूप सरकार का रूख प्रेस के प्रति पूर्णतः बदल गया| राष्ट्रवादी विचारधारा के प्रसार को रोकने के लिए प्रेस को कुंठित करने के प्रयास किए गए| प्रेस को नियंत्रित करने के लिए पारित विभिन्न अधिनियम उल्लेखनीय है——
1799 का अधिनियम——
फ्रांसीसी क्रांति के प्रभाव को भारत में फैलाने से रोकने के लिए गवर्नर जनरल वेलेस्ली ने 1799 में एक अधिनियम पारित किया| इसके अनुसार समाचार पत्रों पर सेंसरशिप लगा दिया गया|
1823 का लाइसेंस अधिनियम——-
इस अधिनियम द्वारा प्रेस स्थापित करने से पहले सरकारी अनुमति लेना आवश्यक बना दिया गया|
1867 का पंजीकरण अधिनियम——
इस अधिनियम द्वारा यह आवश्यक बना दिया गया कि प्रत्येक पुस्तक, समाचार पत्र एवं पत्रिका पर मुद्रक, प्रकाशक तथा मुद्रण के स्थान का नाम अनिवार्य रूप से दिया जाए| साथ ही प्रकाशित पुस्तक की एक प्रति सरकार के पास जमा करना आवश्यक बना दिया गया|
वर्नाक्यूलर प्रेस एक्ट (1878)—–
लार्ड लिटन के शासनकाल में पारित प्रेस को प्रतिबंधित करने वाला सबसे विवादास्पद अधिनियम यही था| इसका उद्देश्य देशी भाषा के समाचार पत्रों पर कठोर अंकुश लगाना था| अधिनियम के अनुसार भारतीय समाचार पत्र ऐसा कोई समाचार प्रकाशित नहीं कर सकती थी जो अंग्रेजी सरकार के प्रति दुर्भावना प्रकट करता हो| भारतीय राष्ट्रवादियों ने इस अधिनियम का कड़ा विरोध किया| सरकार ने प्रेस पर अंकुश लगाने के लिए समय समय पर अन्य कानून भी बताए| द्वितीय विश्वयुद्ध आरंभ होने पर भारत रक्षा अधिनियम बनाया गया| इसके द्वारा युद्ध संबंधी समाचारों के प्रकाशन को नियंत्रित किया गया| भारत छोड़ो आंदोलन के दौरान सरकार ने समाचार पत्रों पर कठोर नियंत्रण स्थापित किया| 1942 में लगभग 90 समाचार पत्रों का प्रकाशन रोक दिया गया| इस प्रकार औपनिवेशिक सरकार ने भारतीय प्रेस को प्रतिबंधित करने के लिए विभिन्न अधिनियों के द्वारा काफी प्रयास किए|
5. भारतीय राष्ट्रीय आंदोलन में प्रेस की भूमिका एवं इसके प्रभावों की समीक्षा करें|
उत्तर:-
भारतीय राष्ट्रीय आंदोलन के उद्भव एवं विकास में प्रेस की प्रभावशाली भूमिका थी| इसने राजनीतिक, सामाजिक, आर्थिक एवं अन्य मुद्दों को उठाकर उन्हें जनता के समक्ष लाकर उनमें राष्ट्रवादी भावना का विकास किया तथा लोगों में नयी जागृति ला दी|
राजनीतिक क्षेत्र में योगदान——-
प्रेस में प्रकाशित लेखों और समाचार पत्रों से भारतीय औपनिवेशिक शासन के वास्तविक स्वरूप से परिचित हुए| समाचार पत्रों ने उपनिवेशवाद और साम्राज्यवाद के घिनौने मुखौटे का पर्दाफाश कर दिया तथा इनके विरुद्ध लोकमत को संगठित किया| जनता को राजनीतिक शिक्षा देने का दायित्व समाचार पत्रों ने अपने ऊपर ले लिया| समाचार पत्रों ने देश में चलनेवाले विभिन्न आंदोलनों एवं राजनीतिक कार्यक्रमों से जनता को परिचित कराया| कांग्रेस के कार्यक्रम हो या उसके अधिवेशन, बंगभंग आंदोलन अथवा असहयोग आंदोलन, नमक सत्याग्रह या भारत छोड़ो आंदोलन, समाचारों द्वारा ही लोगों को इनमें भाग लेने की प्रेरणा मिलती थी| कांग्रेस की भिक्षाटन नीति का प्रेस ने विरोध किया तथा स्वदेशी और बहिष्कार की भावना को बढ़ावा देकर राष्ट्रवाद का प्रसार किया| भारतीयों की नजर में महात्मा गाँधी भी प्रेस के माध्यम से ही आए|
आर्थिक क्षेत्र में योगदान—–
आर्थिक क्षेत्र में भी प्रेस ने महत्वपूर्ण भूमिका निभाई| इसने अंग्रेजी सरकार द्वारा भारत के आर्थिक शोषण की घोर निंदा की| धन निष्कासन की नीति, आयात निर्यात एवं औद्योगिक नीति की आलोचना समाचार पत्रों में प्रमुखता से की गई| अनेक समाचार पत्रों ने भारत की आर्थिक दुर्दशा के लिए सरकारी आर्थिक नीतियों को उत्तरदायी बताकर उनमें परिवर्तन की माँग की| समाचार पत्रों ने आदिवासियों, किसानों के शोषण ओर उनके आंदोलनों को प्रमुखता से छापा| समाचार पत्रों ने बहिष्कार और स्वदेशी की भावना को समर्थन देकर एक ओर राष्ट्रीयता की भावना को विकसित किया तो दूसरी ओर ब्रिटिश आर्थिक हितों पर कुठाराघात किया|
सामाजिक क्षेत्र में योगदान—–
सामाजिक सुधार आंदोलनों को भी समाचार पत्रों ने समर्थन दिया| इसने रुढ़िगत परंपरावादी समाज में सुधार लाने के लिए किए गए प्रयासों को अपना समर्थन दिया| इसने जाति प्रथा, छुआछुत की आलोचना की समाचार पत्रों का एक महत्वपूर्ण योगदान यह था कि इसने सांप्रदायिक सदभाव को बढ़ावा देने तथा हिंदू मुस्लिम एकता के प्रयासों की सराहना कर इसे प्रोत्साहित किया| इस प्रकार राष्ट्रीय आंदोलन में प्रेस ने अपनी सराहनीय भूमिका निभाई|
6. स्वातंत्र्योत्तर भारत में प्रेस की भूमिका की व्याख्या करें|
उत्तर:-
वैश्विक स्तर पर मुद्रण अपने आदि काल से भारत में स्वाधीनता आंदोलन तक भिन्न भिन्न परिस्थितियों से गुजरते हुए आज अपनी उपादेयता के कारण ऐसी स्थिति में पहुँच गया है जिससे ज्ञान जगत की हर गतिविधियाँ प्रभावित हो रहीं है| आज पत्रकारिता साहित्य, मनोरंजन ज्ञान विज्ञान, प्रशासन, राजनीति आदि को प्रत्यक्ष रूप से प्रभावित कर रहा है| स्वातत्र्योत्तर भारत में पत्र पत्रिकाओं का उद्देश्य भले ही व्यवसायिक रहा हो किंतु इसने साहित्यिक एवं सांस्कृतिक अभिरुचि जगाने में महत्वपूर्ण भूमिका का निर्वहन किया है| पत्र पत्रिकाओं ने दिन प्रतिदिन घटने वाली घटनाओं के परिप्रेक्ष्य में नयी और सहज शब्दावली का प्रयोग करते हुए भाषाशास्त्र के विकास में भी महत्वपूर्ण योगदान दिया| प्रेस ने समाज में नवचेतना पैदा कर सामाजिक धार्मिक राजनीतिक एवं दैनिक जीवन में क्रांति का सूत्रपात किया| प्रेस ने सदैव सामाजिक बुराइयों जैसे दहेज प्रथा, विधवा विवाह, बालिका वधु, बाल हत्या, शिशु विवाह जैसे मुद्दों को उठाकर समाज के कुप्रथाओं को दूर करने में मदद की तथा व्याप्त अंधविश्वास को दूर करने का प्रयास किया| आज प्रेस समाज में रचनात्मक का प्रतीक भी बनता जा रहा है| यह समाज की नित्यप्रति की उपलब्धियों, वैज्ञानिक अनुसंधानों, वैज्ञानिक उपकरणों एवं साधनों से परिचित कराता है| आज के आधुनिक दौर में प्रेस साहित्य और समाज की समृद्ध चेतना की धरोहर है| प्रेस लोकतंत्र के चौथे स्तंभ के रूप में लोकतांत्रिक मूल्यों की रक्षा करने हेतु सजग प्रहरी के रूप में हमारे सामने खड़ा है|
7. भारत में प्रिंट का गरीब जनता पर क्या प्रभाव पड़ा?
उत्तर:-
प्रिंट ने समाज के किसी वर्ग को अपने प्रभाव से अछूता नहीं छोड़ा| सबको अपने रंग में रंग लिया| प्रिंट ने चर्च को हिला दिया और महाराजाओं को झुका दिया| इसकी शक्ति के सामने सब नतमस्तक हो गये| गरीब जनता के लिए सस्ती और मनोरंजक किताबें छापी जाने लगीं जिससे वे भी साहित्य में अपनी रुचि दिखा सकें| मद्रास के शहरों में सस्ती किताबें चौक चौराहों पर बेची जा रही थी जिसे गरीब भी सके| सार्वजनिक पुस्तकालय खुलने लगे थे| जिससे किताबों की संख्या बढ़ी| ये पुस्तकालय अधिकतर शहरों या कस्बों में होते थे और कहीं कहीं संपन्न गाँवों में भी पुस्तकालय स्थापित होने लगे| स्थानीय अमीरों के लिए पुस्तकालय खोलना प्रतिष्ठा की बात की| कारखानों के मजदूरों से बहुत ज्यादा काम लिया जा रहा था और उन्हें अपने बारे में लिखने की शिक्षा तक नहीं मिली थी| लेकिन कानपुर के मजदूर काशी बाबा ने 1938 में छोटे और बड़े सवालों पर लिखा और उसे प्रकाशित करवाया| इस लेख में, जातीय और वर्गीय शोषण के बीच का रिश्ता समझाने की कोशिश की| 1935 से 1955 के बीच सुदर्शन चक्र के नाम से लिखने वाले एक और मिल मजदूर का लेखन सच्ची कविताएँ नामक एक संग्रह में छापा गया| बंगलोर के सूती मजदूरों ने ख़ुद को शिक्षित करने के ख्याल से पुस्तकालय बनाया, जिसकी प्रेरणा उन्हें बंबई के मिल मजदूरों से मिली थी| यह सब प्रिंट के कारण ही संभव हो सका| देश के राजनेताओं और समाज सुधारकों को पता था कि जब तक भारत की गरीब जनता जागृत नहीं होती, देश का कल्याण नहीं हो सकता| उनका कल्याण करने के लिए नेताओं और सुधारकों ने पहले गरीब जनता में पायी जाने वाली नशाखोरी, अज्ञानता, अशिक्षा को दूर करने और राष्ट्रवाद का संदेश पहुँचाने का प्रयत्न किया जिसमें प्रिंट की सराहनीय भूमिका रही|
8. भारतीय उपन्यासों में निम्न जाति के मुद्दे को किस प्रकार उठाया गया? ऐसे किन्हीं दो उपन्यासों का संक्षिप्त परिचय दें|
उत्तर:-
भारत में वर्ण और जाति व्यवस्था प्राचीन काल से ही विद्यमान है| इसने सामाजिक विभेद और असमानता को जन्म दिया है| जातिप्रथा ने बहुत समय तक हिंदू समाज को काफी प्रभावित किया है| जब इस प्रथा में अनेक बुराइयाँ आ गयी तो उससे समाज को बड़ी हानि उठानी पड़ी| विशेषकर ऊंच नीच के भेदभाव ने समाज को आपस में बांट कर दिया और छुआछूत का अभिशाप हिंदू जाति के नाम मढ़ दिया| 18 वीं 19 वीं शताब्दी के समाज सुधारकों में राजा राजमोहन राय, स्वामी दयानंद आदि ने भ इस बुराई को जड़ से उखाड़ फेंकने पर जोर दिया| निम्न जाति पर किए गए अत्याचारों की निंदा पर आधारित उपन्यास सरस्वती विजियम 1892 में प्रकाशित हुआ| इसके लेखक पोथरी कुंजाम्बु जो स्वयं निम्न जाति के थे| इस उपन्यास का नायक अछूत जाति का है जो ब्राह्मण जमींदार के अत्याचार से बचने के लिए गाँव छोड़कर भाग जाता है और धर्म परिवर्तन कर ईसाई बन जाता है तथा उच्च अंग्रेजी शिक्षा प्राप्त कर न्यायाधीश बनकर अपने गाँव की स्थानीय कचहरी में आता है जहाँ पर जमींदार हत्या के आरोप में कचहरी में आता है| मामले की सुनवाई के अंत में नायक अपनी पहचान बताता है जिससे जमींदार लज्जित होकर माफी मांगता है इस घटना के बाद जमींदार सुधर जाता है| इस उपन्यास के द्वारा लेखक ने निम्न जातियों के लिए शिक्षा के महत्व को रेखांकित किया है| 1956 में अद्वैत मल्ला बर्मन ने तीताश एकटी नदीरनाम नामक उपन्यास लिखा| यह एक महाकाव्यात्मक उपन्यास था जो मल्लाहों के जीवन पर आधारित था| इस उपन्यास में मल्लाहों तीन पीढ़ियों की त्रासदी की कहानी मार्मिक ढंग से प्रस्तुत की गई है| इस उपन्यास का नायक अनंत अपना गाँव त्यागकर शहर में जाकर पढ़ाई करता है| उपन्यास में मल्लाहों के जीवन, नौका दौड़, उनके पर्व उत्साहो, किसानों के साथ संबंध, उच्च जातियों से विद्वेष तथा मल्लाहों के समुदाय पर शहरीकरण के प्रभाव का वर्णन किया गया है| लेखक ने मल्लाह समुदाय और नदी के बीच संबंधों ने समानता ढूँढने का प्रयास किया है| इन उपन्यासों पर नजर डालने से यह निष्कर्ष निकलता है कि समाज में एकता बनाए रखने के लिए ऊंच नीच के भेदभाव को छोड़कर आपस में मिलजुलकर रहना चाहिए|
9. भारत में औरतों के द्वारा उपन्यास पढ़ने के प्रति समाज का क्या दृष्टिकोण था? भारतीय उपन्यासों में महिलाओं का चित्रण किस प्रकार किया गया?
उत्तर:-
भारत में उपन्यास पढ़ने के प्रति समाज का उत्साहवर्धक दृष्टिकोण नहीं था| लोग मानते थे कि उपन्यास का परिवार और समाज पर बुरा प्रभाव पड़ता था| औरतों और बच्चों के लिए यह निषिद्ध माना गया, क्योंकि उनके अपरिपक्व दिमाग पर इसका बुरा प्रभाव पड़ सकता था| परंपरावादियों ने पत्र पत्रिकाओं के माध्यम से स्त्रियों को उपन्यास पढ़ने से मना किया| थीरु वी ० का ० द्वारा लिखित लेख में कहा गया कि उपन्यासों से स्त्रियों की जिंदगी तबाह हो जाएगी, वे घृणा की पात्र बन जाएंगी| साथ ही, उन्हें उनके कर्तव्यों को याद दिलाई गई| स्त्रियों की पहुँच से बाहर उपन्यासों को रखा गया| इसके बावजूद स्त्रियाँ उपन्यास पढ़ती थी| 19 वीं सदी के अंत में भारतीय उपन्यासों में स्त्रियों का चित्रण एकांत में बैठकर पढ़ते हुए दिखाया गया है| 20 वीं सदी में सामान्यतः उपन्यासों में नारी को नये स्वरूप में प्रस्तुत किया गया| नये स्वरूप में अपना विवाह स्वेच्छा से करना तथा पारिवारिक बंदिशों को छोड़कर अपने मन मुताबिक जीवन बिताने वाली स्त्रियों का चित्रण किया गया है| स्त्रियों का चित्रण कुछ उपन्यासों में इस प्रकार किया है कि उनके प्रभाव से पुरुष की जिंदगी बदल गयी| उपन्यास में और उपन्यासों द्वारा महिला जगत की, उसकी भावनाओं तथा उसके अनुभवों पहचान की|
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